Monday, September 3, 2018

महर्षि च्यवन ऋषि की कथा

च्यवनगौड़ ब्राह्मण समाज

श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार महाभाग भृगुजी ने अपनी भार्या ख्याति से धाता और विधाता नामक दो पुत्र तथा श्री नाम की एक कन्या उत्पन्न की। आदिपर्व अध्याय 60 में दी हुई वंशावली के अनुसार भृगु के दो और पुत्र कवि और च्यवन बताये गये हैं। च्यवन महर्षिभृगु की पुलोमा नामक स्त्री से उत्पन्न हुये थे। उन्हीं महामहिमामय च्यवन से ही च्यवन वंश का विकास माना जाता है। हम सब च्यवनवंशीय हैं। च्यवन ऋषि ने ढोसी पर्वत पर बहुत काल तक तपस्या की, अत: उनके वंशज ढूसर ब्राह्मण कहलाये। इन्हीं च्यवन और सुकन्या की कथा सर्वत्र प्रसिद्ध है ।
च्यवन ऋषि महान् भृगु ऋषि के पुत्र थे। इनकी माता का नाम 'पुलोमा' था। ऋषि च्यवन को महान् ऋषियों की श्रेणी में रखा जाता है। इनके विचारों एवं सिद्धांतों द्वारा ज्योतिष में अनेक महत्वपूर्ण बातों का आगमन हुआ। इस कारण यह ज्योतिष गुरू के रूप में भी प्रसिद्ध हुए थे। इनके द्वारा रचित ग्रंथों से ज्योतिष तथा जीवन के सही मार्गदर्शन का बोध हुआ।
 
जन्म कथा

ऋषि भृगु की पत्नी का नाम पुलोमा था। एक बार जब भृगु ऋषि अपनी पत्नी के पास नहीं थे, तब राक्षस पुलोमन उनकी पत्नी को जबरन अपने साथ ले जाने के लिए आया। वह पुलोमा को बलपूर्वक ले जाने लगता है। उस समय पुलोमा गर्भवती थी और इस कारण पुलोमन से संघर्ष में उनका शिशु गर्भ से बाहर गिर जाता है। बालक के तेज से राक्षस पुलोमन भस्म हो जाता है तथा पुलोमा पुन: अपने निवास स्थान भृगु ऋषि के पास आ जाती है। गर्भ से गिर जाने के कारण ही बालक नाम 'च्यवन' पड़ा।
भृगु मुनि के पुत्र च्यवन महान तपस्वी थे। एक बार वे तप करने बैठे तो तप करते-करते उन्हें हजारों वर्ष व्यतीत हो गये। यहाँ तक कि उनके शरीर में दीमक-मिट्टी चढ़ गई और लता-पत्तों ने उनके शरीर को ढँक लिया। उन्हीं दिनों राजा शर्याति अपनी चार हजार रानियों और एकमात्र रूपवती पुत्री सुकन्या के साथ इस वन में आये। सुकन्या अपनी सहेलियों के साथ घूमते हुये दीमक-मिट्टी एवं लता-पत्तों से ढँके हुये तप करते च्यवन के पास पहुँच गई। उसने देखा कि दीमक-मिट्टी के टीले में दो गोल-गोल छिद्र दिखाई पड़ रहे हैं जो कि वास्तव में च्यवन ऋषि की आँखें थीं। सुकन्या ने कौतूहलवश उन छिद्रों में काँटे गड़ा दिये। काँटों के गड़ते ही उन छिद्रों से रुधिर बहने लगा। जिसे देखकर सुकन्या भयभीत हो चुपचाप वहाँ से चली गई।
आँखों में काँटे गड़ जाने के कारण च्यवन ऋषि अन्धे हो गये। अपने अन्धे हो जाने पर उन्हें बड़ा क्रोध आया और उन्होंने तत्काल शर्याति की सेना का मल-मूत्र रुक जाने का शाप दे दिया। राजा शर्याति ने इस घटना से अत्यन्त क्षुब्ध होकर पूछा कि क्या किसी ने च्यवन ऋषि को किसी प्रकार का कष्ट दिया है? उनके इस प्रकार पूछने पर सुकन्या ने सारी बातें अपने पिता को बता दी। राजा शर्याति ने तत्काल च्यवन ऋषि के पास पहुँच कर क्षमायाचना की। च्यवन ऋषि बोले कि राजन्! तुम्हारी कन्या ने भयंकर अपराध किया है। यदि तुम मेरे शाप से मुक्त होना चाहते हो तो तुम्हें अपनी कन्या का विवाह मेरे साथ करना होगा। इस प्रकार सुकन्या का विवाह च्यवन ऋषि से हो गया।
सुकन्या अत्यन्त पतिव्रता थी। अन्धे च्यवन ऋषि की सेवा करते हुये अनेक वर्ष व्यतीत हो गये। हठात् एक दिन च्यवन ऋषि के आश्रम में दोनों अश्‍वनीकुमार आ पहुँचे। सुकन्या ने उनका यथोचित आदर-सत्कार एवं पूजन किया। अश्‍वनीकुमार बोले, "कल्याणी! हम देवताओं के वैद्य हैं। तुम्हारी सेवा से प्रसन्न होकर हम तुम्हारे पति की आँखों में पुनः दीप्ति प्रदान कर उन्हें यौवन भी प्रदान कर रहे हैं। तुम अपने पति को हमारे साथ सरोवर तक जाने के लिये कहो।" च्यवन ऋषि को साथ लेकर दोनों अश्‍वनीकुमारों ने सरोवर में डुबकी लगाई। डुबकी लगाकर निकलते ही च्यवन ऋषि की आँखें ठीक हो गईं और वे अश्‍वनी कुमार जैसे ही युवक बन गये। उनका रूप-रंग, आकृति आदि बिल्कुल अश्‍वनीकुमारों जैसा हो गया। उन्होंने सुकन्या से कहा कि देवि! तुम हममें से अपने पति को पहचान कर उसे अपने आश्रम ले जाओ। इस पर सुकन्या ने अपनी तेज बुद्धि और पातिव्रत धर्म से अपने पति को पहचान कर उनका हाथ पकड़ लिया। सुकन्या की तेज बुद्धि और पातिव्रत धर्म से अश्‍वनीकुमार अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन दोनों को आशीर्वाद देकर वहाँ से चले गये।
जब राजा शर्याति को च्यवन ऋषि की आँखें ठीक होने नये यौवन प्राप्त करने का समाचार मिला तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन्होंने च्यवन ऋषि से मिलकर उनसे यज्ञ कराने की बात की। च्यवन ऋषि ने उन्हें यज्ञ की दीक्षा दी। उस यज्ञ में जब अश्‍वनीकुमारों को भाग दिया जाने लगा तब देवराज इन्द्र ने आपत्ति की कि अश्‍वनीकुमार देवताओं के चिकित्सक हैं, इसलिये उन्हें यज्ञ का भाग लेने की पात्रता नहीं है। किन्तु च्यवन ऋषि इन्द्र की बातों को अनसुना कर अश्‍वनीकुमारों को सोमरस देने लगे। इससे क्रोधित होकर इन्द्र ने उन पर वज्र का प्रहार किया लेकिन ऋषि ने अपने तपोबल से वज्र को बीच में ही रोककर एक भयानक राक्षस उत्पन्न कर दिया। वह राक्षस इन्द्र को निगलने के लिये दौड़ पड़ा। इन्द्र ने भयभीत होकर अश्‍वनीकुमारों को यज्ञ का भाग देना स्वीकार कर लिया और च्यवन ऋषि ने उस राक्षस को भस्म करके इन्द्र को उसके कष्ट से मुक्ति दिला दी।
 
च्यवन तथा मछुआरे
 
एक बार च्यवन ने महान् व्रत का आश्रय लेकर जल के भीतर रहना आरंभ कर दिया। वे गंगा-यमुना-संगम स्थल पर रहते थे। वहां उनकी जलचरों से प्रगाढ़ मैत्री हो गयी। एक बार मछवाहों ने मछलियाँ पकड़ने के लिए जाल डाला तो मत्स्यों सहित च्यवन ऋषि भी जाल में फंस गये। नदी से बाहर निकलने पर उन्हें देख समस्त मछवाहे उनसे क्षमा मांगने लगे। च्यवन ने कहा कि उनके प्राण मत्स्यों के साथ ही त्यक्त अथवा रक्षित रहेंगे। उस नगर के राजा को जब च्यवन की इस घटना का ज्ञान हुआ तो उसने भी मुनि से उचित सेवा पूछी। मुनि ने उससे मछलियों के साथ-साथ अपना मूल्य मछवारों को देने के लिए कहा। राजा ने पूरा राज्य देना भी स्वीकार कर लिया, किंतु च्यवन उसे अपने समकक्ष मूल्य नहीं मान रहे थे। तभी गौर के पेट से जन्मे गोताज मुनि उधर आ पहुंचे। उन्होंने राजा नहुष से कहा- "जिस प्रकार च्यवन अमूल्य हैं, उसी प्रकार गाय भी अमूल्य होती है, अत: आप उनके मूल्यस्वरूप एक गौर दे दीजिए।" राजा के ऐसा ही करने पर च्यवन प्रसन्न हो गये। मछवाहों ने क्षमा-याचना सहित वह गाय च्यवन मुनि को ही समर्पित कर दी तथा उनके आशीर्वाद से वे लोग मछलियों के साथ ही स्वर्ग सिधार गये। च्यवन तथा गोताज अपने-अपने आश्रम चले गये। 
 
राजा कुशिक को वरदान
 
एक बार च्यवन मुनि को यह ज्ञात हुआ कि उनके वंश में कुशिक वंश की कन्या के संबंध से क्षत्रियत्व का दोष आने वाला है। अत: उन्होंने कुशिक वंश को भस्म करने की ठान ली। वे राजा कुशिक के यहाँ अतिथि रूप में गये। राजा-रानी उनकी सेवा में लग गये। उन दोनों से यह कहकर कि वे उन्हें जगाये नहीं और उनके पैर दबाते रहें, वे सो गये। इक्कीस दिन तक वे लगातार एक करवट सोते रहे और राजा-रानी उनके पैर दबाते रहें। फिर वे अंतर्धान हो गये। पुन: प्रकट हुए और इसी प्रकार वे दूसरी करवट सो गये। जागने पर भोजन में आग लगा दी। तदनंतर एक गाड़ी में दान, युद्ध इत्यादि की विपुल सामग्री भरकर उसमें राजा-रानी को जोतकर सवार हो गये तथा राजा-नारी पर चाबुक से प्रहार करते रहे।
इस प्रकार के अनेक कृत्य होने पर भी जब राजा कुशिक तथा रानी क्रोध अथवा विकार से अभिभूत नहीं हुए तो च्यवन उन पर प्रसन्न हो गये। उन्हें गाड़ी से मुक्त कर अगले दिन आने के लिए कहा और राजमहल में भेज दिया तथा स्वयं गंगा के किनारे रुक गये। अगले दिन वहां पहुंचकर राजा-रानी ने एक अद्भुत स्वर्णमहल देखा, जो चित्र-विचित्र उपवन से घिरा था। उसके चारों ओर छोटे-छोटे महल तथा मानव-भाषा बोलने वाले पक्षी थे। दिव्य पलंग पर च्यवन ऋषि लेटे थे। राजा-रानी मोह में पड़ गये। च्यवन ने उन दोनों को अपने आने का उद्देश्य बताकर कहा कि उनसे वे इतने प्रसन्न हुए हैं कि वे उनके बिना मांगे ही इच्छित वर देंगे। तदनुसार राजा कुशिक की तीसरी पीढ़ी से कौशिक वंश (ब्राह्मणों का एक वंश) प्रारंभ हो जायेगा। च्यवन ऋषि बोले- 'चिरकाल से भृगुवंशी लोगों के यजमान क्षत्रिय रहे हैं, किंतु भविष्य में उनमें फूट पड़ेगी। मेरे वंश में 'ऊर्व' नाम का तेजस्वी बालक त्रिलोक-संहार के लिए अग्नि की सृष्टि करेगा। ऊर्व के पुत्र ऋचीक होंगे। वे तुम्हारी पौत्री (गाधि की पुत्री) से विवाह करके ब्राह्मण-पुत्र को जन्म देंगे, जिसका पुत्र क्षत्रिय होगा। ऋचीक की कृपा से तुम्हारे वंश गाधि को विश्वामित्र नामक ब्राह्मण-पुत्र की प्राप्ति होगी। जो कुछ दिव्य तुम यहाँ देख रहे हो, वह स्वर्ग की एक झलक मात्र है। इतना कहकर ऋषि ने उन दोनों से विदा ली।

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